कितने घर
न जाने वह
कौन सी रात होती है?
घर का दो हिस्सा,
खुद-ब-खुद अलग हो जाती है।
यह मुल्क नही घर है
जहाँ संस्कार मिले,
मुल्क से संस्कृत मिली,
सभ्य समाज मिले।
एकता ,संघटन,रिश्ता,
प्रेम,अपनत्व की बात करते है
कहाँ खो जाती है
संवेदना और मन की भाव,
तोड़ने वाले हजार,
और जोड़ने वाले?
वो दरवाजा और आँगन
बीच में एक दीवार
रह जाती है।
न जाने वह कौन सी बात है
फिर से इतिहास दोहराती है।
नेकी का हाथ थम जाये,
और घर,
दीवार में सिमट जाती है।
वो पहिया भी थम गया
वो प्रेम न जाने कहाँ खो गई?
वर्षो पहले सयुंक्त दिखाई देती थी
आज वही
एक परिवार सिमट गई।
दीवार बन जाता है,
फिर भी आँगन
मायूस होकर क्या बोले?
उसके जहन में एक बात रह जाती है
कितने घर और बनेगा।
-अमित चन्द्रवंशी "सुपा"
मो.8085686829
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